Saturday, February 22, 2020

DOHAS OF KABIR DAS II

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अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर
सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच कीजै सूर 401
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार 402
कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै कोइ
जब लग आस सरीर की, तब लग दास होइ 403
सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि जाणि 404
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ बिसारौ तुझ 405
आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या कोउ पत्याइ 406
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ
मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ 407
कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर 408
रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान
ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान 409
कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास
कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास 410
अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या जाइ
अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ 411
जिसहि कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई
दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ 412
साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार 413
झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार
आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार 414
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ
औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ 415
कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त पार 416
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार पार 417
कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि
बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर सकई लागि 418
बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत 419
पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि
जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि 420
निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय
बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय 421
गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि
डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि 422
जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ 423
सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद देष्या जाइ 424
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या जाइ 425
नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि
जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि 426
कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित कोइ
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ 427
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ
तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ 428
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं 429
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि
तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि 430
सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार 431
गुरु के विषय में दोहे
गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान
बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान 432
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम
कीट जाने भृगं को, गुरु करले आप समान 433
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय 434
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त 435
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय
कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय 436
जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर 437
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान 438
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट 439
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं 440
लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय
शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय 441
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर
आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर 442
गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त 443
गुरु बिन ज्ञान उपजै, गुरु बिन मिलै मोष
गुरु बिन लखै सत्य को, गुरु बिन मिटे दोष 444
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं
उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं 445
गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और
सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर 446
सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान
शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान 447
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास 448
अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान
ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान 449
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय
कहैं कबीर ता दास का, पला पकड़ै कोय 450
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव 451
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै ज्ञान
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम 452
सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम 453
कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव 454
कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार
तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार 455
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ दीजै पीठ 456
तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम 457
जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि
शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि 458
भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि
गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि 459
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय 460
सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय 461
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल
अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल 462
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय
कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय 463
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट
कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट 464
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय 465
सतगुरु के विषय मे दोहे
सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय 466
सतगुरु शरण आवहीं, फिर फिर होय अकाज
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज 467
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड
तीन लोक पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड 468
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय 469
सतगुरु मिले जु सब मिले, तो मिला कोय
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय 470
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव
कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव 471
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर
अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर 472
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय 473
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान 474
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय 475
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै 476
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय 477
डूबा औघट तरै, मोहिं अंदेशा होय
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ 478
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु 479
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू 480
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत 481
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै 482
गुरु पारख पर दोहे
जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन
अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन 483
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द 484
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव 485
आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय
दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय 486
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि 487
पूरा सतगुरु मिला, सुनी अधूरी सीख
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख 488
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल 489
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव 490
जो गुरु ते भ्रम मिटे, भ्रान्ति जिसका जाय
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर लाय 491
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत कीजै वार
द्वार पावै शब्द का, भटके बारम्बार 492
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि 493
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार 494
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय
शिष शोधे बिन सेइया, पार पहुँचा जाए 495
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय 496
गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास 497
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय 498
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह 499
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस 500
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय
कीच-कीच के धोवते, दाग छूटे कोय 501
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप 502
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान 503
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय 504
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द लागै अंग
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग 505
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर भीजी कोर 506
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला 507
गुरु शिष्य के विषय मे दोहे
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध 508
हिरदे ज्ञान उपजै, मन परतीत होय
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय 509
ऐसा कोई मिला, जासू कहूँ निसंक
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक 510
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय 511
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय 512
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि 513
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया मिलै कोय
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय 514
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल 515
भिक्ति के विषय मे दोहे
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय
माटी लदै कुम्हार की, घास डारै कोय 516
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय
गली-गली भूँकत फिरै, टूक डारै कोय 517
जो कामिनि परदै रहे, सुनै गुरुगुण बात
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात 518
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं 519
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह
सूखा काठ जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह 520
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह 521
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द लागे सार
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार 522
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय 523
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया खीज
ऊसर बीज उगसी, बोवै दूना बीज 524
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ पावै पार 525
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग 526
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार 527
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय
बगुला परख जानई, हंस चुनि-चुनि खाय 528
साकट कहा कहि चलै, सुनहा कहा खाय
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय 529
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय 530
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय 531
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ 532
साकट संग बैठिये करन कुबेर समान
ताके संग चलिये, पड़ि हैं नरक निदान 533
टेक कीजै बावरे, टेक माहि है हानि
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि 534
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है
कोटि जतन परमोघिये, तऊ छाड़े टेक 535
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार 536
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो 537
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय 538
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास 539
आँखों देखा घी भला, मुख मेला तेल
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल 540
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय
जो होवै सूली सजा, काँटे टरि जाय 541
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय 542
कबीर दर्शन साधु के, करत कीजै कानि
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि 543
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय 544
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय 545
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय
यामें विलंब कीजिये, कहैं कबीर समुझाय 546
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार 547
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय 548
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय
यामें देर लाइये, कहैं कबीर समुदाय 549
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु पावै योष 550
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय 551
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त
यामें ढील कीजिये, कहै कबीर अविगत्त 552
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि 553
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान 554
इन अटकाया रुके, साधु दरश को जाय
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय 555
खाली साधु बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय 556
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि
कहै कबीर संतन को, देत कीजै कानि 557
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ जाय
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय 558
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर
साधु देत सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर 559
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि
कहै कबीर सन्तन को, देत कीजै कानि 560
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह 561
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय 562
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न 563
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर 564
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट 565
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार 566
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग 567
आवत साधु हरखिया, जात दीया रोय
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय 568
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय 569
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह
परमारथ के कारने, चारों धारी देह 570
बिरछा कबहुँ फल भखै, नदी अंचय नीर
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर 571
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध 572
साधुन की झुपड़ी भली, साकट के गाँव
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव 573
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल 574
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि
तासु पटतरा तुले, हरिजन की परिहारिन 575
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम 576
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप 577
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड 578
कबीर शीतल जल नहीं, हिम शीतल होय
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय 579
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै वेद
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद 580
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय
जब लग साधु सेवई, तब लग काचा काम 581
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस 582
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन 583
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं 584
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार 585
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर 586
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय 587
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल 588
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास 589
साधू जन सब में रमैं, दुख काहू देहि
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि 590
साधु सती और सूरमा, राखा रहै ओट
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत 592
साधु सती सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ
सिंह मारे मेढ़का, साधु बाँघै लोभ 593
साधु तो हीरा भया, फूटै धन खाय
वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय 594
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर 595
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार 596
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप
उपकारी निहकामता, उपजै छोह ताप 597
सदा कृपालु दु: परिहरन, बैर भाव नहिं दोय
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय 598
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक 599
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात 600

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