निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
॥ संगति पर दोहे ॥
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥
॥ सेवक पर दोहे ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥
॥ दासता पर दोहे ॥
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥
॥ भक्ति पर दोहे ॥
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥
॥ चेतावनी ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि ।
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
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