Saturday, February 22, 2020

DOHAS OF KABIR DAS - III

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निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । 
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह 601
मानपमान चित धरै, औरन को सनमान
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान 602
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय 603
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं 604
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय 605
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय 606
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव
साधु दोऊ को पोषते, भाव गिनै अभाव 607
सन्त छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता तजन्त 608
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं 609
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय
साधू जन रमा भला, दाग लागै कोय 610
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय 611
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ 612
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय
भीतर और बसावई, ऊपर और होय 613
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग
यों साधू संसार में, कबीर फड़त फंद 614
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै काल 615
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल 616
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर
तीनों निकसि बाहुरैं, साधु सती सूर 617
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं 618
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि 619
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं 620
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर 621
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय 622
संगत कीजै साधु की कभी निष्फल होय
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय 623
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त 624
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव 625
सो दिन गया इकारथे, संगत भई सन्त
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त 626
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान 627
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर 628
यह कलियुग आयो अबै, साधु जाने कोय
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय 629
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै काहू शीश 630
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह 631
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय 632
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै वाको सोर 633
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच 634
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब 635
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय 636
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय 637
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग 638
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग 639
भेष के विषय मे दोहे
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस 640
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल 641
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार 642
तन को जोगी सब करै, मन को करै कोय
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय 643
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार 644
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव 645
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द 646
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय 647
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख 648
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग 649
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान 650
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट 651
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम 652
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल
साँच सिंह जब मिले, गाडर कौन हवाल 653
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार पार 654
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग 655
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग 656
भीख के विषय मे दोहे
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति मोष 657
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख 658
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं 659
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख 660
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर 661
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह 662
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि 663
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय 664
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष 665
संगति पर दोहे
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय 666
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध 667
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस चन्दन होय 668
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग 669
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह 670
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा मन का दाग
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग 671
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु होय
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी देखा कोय 672
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार
मूरख मित्र कीजिये, बूड़ो काली धार 673
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय 674
भुवंगम बास बेधई, चन्दन दोष लाय
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय 675
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल
काची सरसों पेरिकै, खरी भया तेल 676
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान 677
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव
मूरख होय ऊजला, ज्यों कालर का खेत 678
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय
कोयला होय ऊजला, सौ मन साबुन लाय 679
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट 680
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा मन मोह
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह 681
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब खाय
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा जाए 682
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै कोय
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय 683
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस होय 684
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय 685
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय 686
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला कोय
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय 687
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात 688
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज 689
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट 690
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति 691
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग 692
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग
लर-लर लोई हेत है, तऊ छौड़ रंग 693
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल 694
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय 695
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत
साकुट काली कामली, धोते होय सेत 696
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान धरो तब एकिला, और दूजा कोय 697
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग 698
सेवक पर दोहे
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय 699
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय 700
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी होय 701
अनराते सुख सोवना, राते नींद आय
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय 702
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ दूजा होय 703
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल 704
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल 705
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि जाय 706
उलटे सुलटे बचन के शीष मानै दुख
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख 707
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर 708
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय 709
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग 710
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग 711
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत 712
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान 713
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय 714
दासता पर दोहे
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त 715
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै कोय
जब लग आश शरीर की, तब लग दास होय 716
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु छोड़े संग
रंग लागै का, व्यापै सतगुरु रंग 717
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति छोड़े पास 718
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ 719
काहू को संतापिये, जो सिर हन्ता होय
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय 720
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास 721
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन 722
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास 723
भक्ति पर दोहे
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय 724
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त 725
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय 726
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय
और कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय 727
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम 728
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय 729
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश 730
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज 731
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय 732
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय 733
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय 734
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार 735
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव 736
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास 737
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै बार 738
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय 739
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ चढ़ सी रंग
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग 740
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय 741
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव 742
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत 743
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान 744
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान 745
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर 746
ज्ञान सपूरण भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय 747
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती चालै खोट
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट 748
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव 749
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि जाय 750
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म 751
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान 752
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय 753
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति जाने मेव
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव 754
चेतावनी
कबीर गर्ब कीजिये, चाम लपेटी हाड़
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ 755
कबीर गर्ब कीजिये, ऊँचा देखि अवास
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास 756
कबीर गर्ब कीजिये, इस जीवन की आस
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास 757
कबीर गर्ब कीजिये, काल गहे कर केस
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस 758
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल 759
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह 760
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान 761
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि देखहु आय 762
कबीर गर्ब कीजिये, जाम लपेटी हाड़
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ 763
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव 764
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल 765
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि 766
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग भूल 767
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन देन 768
कबीर जन्त्र बाजई, टूटि गये सब तार
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार 769
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन 770
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए 771
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय 772
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार 773
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय 774
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि 775
मरेंगे मरि जायँगे, कोई लेगा नाम
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम 776
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय 777
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक 778
कै खाना कै सोवना, और कोई चीत
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत 779
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास 780
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास 781
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार 782
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज 783
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया हैत
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत 784
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल 785
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय 786
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग 787
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय 788
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय 789
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज 790
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा जाय
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय 791
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन 792
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत 793
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान 794
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान 795
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम 796
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि 797
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ
टपका लागा फुटि गया, कछु आया हाथ 798
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय
इत के भये ऊत के, चाले मूल गँवाय 799
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि 800

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