Saturday, February 22, 2020

DOHAS OF KABIR DAS - IV

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कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय 801
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि 802
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग 803
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस 804
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय 805
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय 806
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान 807
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय 808
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय 809
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम 810
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय 811
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस 812
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर 813
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट 814
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त 815
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय
मन परतीत ऊपजै, जिय विस्वाय होय 816
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास लेय
अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय 817
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी चली साथ
पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ 818
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय 819
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि
चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि 820
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय 821
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार 822
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय
भय पारस है जीव को, निरभय होय कोय 823
भय बिन भाव ऊपजै, भय बिन होय प्रीति
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति 824
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस रात
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात 825
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत 826
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं 827
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ 828
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार 829
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद 830
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात 831
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद 832
हे मतिहीनी माछीरी! राखि सकी शरीर
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर 833
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल 834
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान 835
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार 836
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज 837
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग 838
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं 839
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद 840
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान 841
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह 842
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर
अविनाशी जो मरे, तो क्यों मरे कबीर 843
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय 844
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार 845
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान 846
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान 847
मूरख शब्द मानई, धर्म सुनै विचार
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार 848
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय 849
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ 850
आँखि देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान 851
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार 852
काल के विषय मे दोहे
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय 853
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय 854
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद 855
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय 856
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत पतियाय 857
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय 858
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा कोय
जरा मुई भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय 859
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र 860
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और
बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर 861
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर 862
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर 863
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात
जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात 864
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल
मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल 865
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल 866
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल 867
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार
सबही यह तन देखता, काल ले गया मात 868
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल 869
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त 870
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय 871
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर 872
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त 873
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल 874
ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार
दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार 875
खुलि खेलो संसार में, बाँधि सक्कै कोय
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट होय 876
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान 877
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर 878
ऐसे साँच मानई, तिलकी देखो जाय
जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय 879
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार
कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार 880
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय
काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय 881
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ
हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ 882
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय
जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय 883
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर 884
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश
सुर नर मुनि लोक सब, सात रसातल सेस 885
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ 886
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय
सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय 887
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान
कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान 888
काल काल सब कोई कहै, काल चीन्है कोय
जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय 889
उपदेश
काल काम तत्काल है, बुरा कीजै कोय
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय 890
काल काम तत्काल है, बुरा कीजै कोय
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय 891
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान 892
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम
चलती बिरिया रे नरा, संग चले छदाम 893
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान 894
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह
आगे हाट बानिया, लेना होय सो लेह 895
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह 896
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह 897
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह
बहुरि देही पाइये, अकी देह सुदेह 898
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ आवे चूक 899
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय
साकट जन श्वान को, फेरि जवाब देय 900
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार 901
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत 902
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर 903
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान 904
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 905
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा 906
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
जाति पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान।।
पाहन पूछे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार
ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार।।
कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लयी बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।

काहे री नलिनी तूं कुमिलानी

काहे री नलिनी तूं कुमिलानी
तेरे ही नालि सरोवर पानीं
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास
ना तलि तपति ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि
कहेकबीरजे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान

झीनी-झीनी बीनी चदरिया

झीनी-झीनी बीनी चदरिया,
काहे कै ताना, काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।
साँई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ी कै मैली कीनी चदरिया।
दासकबीरजतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया॥

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